
छोटी सी आशा
छोटी सी रिद्धिमा अपने पापा और सौतेली मां नीलम के साथ एक छोटे से शहर में रहती थी। मम्मी के जाने के बाद पापा ने नीलम आंटी से शादी की थी, ये सोचकर कि रिद्धिमा को फिर से मां का प्यार मिलेगा। लेकिन वक्त बीतता गया और रिद्धिमा को समझ आने लगा कि ये प्यार सिर्फ नाम का था।
नीलम आंटी छोटी-छोटी बातों पर उसे डांटतीं, मारतीं और घर का सारा काम भी उसी से करवातीं। कभी स्कूल जाने में देर हो जाती तो खाना तक नहीं मिलता। रिद्धिमा सिर्फ 9 साल की थी, लेकिन उसकी आँखों में किसी बूढ़े की तरह अनुभव और उदासी झलकती थी।
एक दिन स्कूल से लौटते समय उसकी एक सहेली ने पूछा – “रिद्धिमा, तू हमेशा इतनी चुप क्यों रहती है?”
रिद्धिमा मुस्कराई, “बस ऐसे ही… मम्मी कहती हैं ज्यादा बोलना अच्छा नहीं होता।”
रात को जब पापा ऑफिस से आए तो रिद्धिमा ने धीरे से पूछा – “पापा, क्या मैं कभी हॉस्टल जा सकती हूँ?”
पापा ने चौंकते हुए पूछा – “क्यों बेटा?”
“बस पढ़ाई में मन लगेगा और दोस्तों के साथ रहना अच्छा लगेगा…” – उसने झूठ बोलते हुए जवाब दिया, क्योंकि वो अपने दर्द को पापा के सामने नहीं खोलना चाहती थी।
पापा सोच में पड़ गए। उन्हें भी अक्सर नीलम के व्यवहार पर शक होता था लेकिन नौकरी और जिम्मेदारियों के चलते वो कुछ कर नहीं पाते थे।
अगले दिन पापा ने अपने एक पुराने दोस्त को कॉल किया जो एक स्कूल में शिक्षक थे। उन्होंने कहा – “भाई, मेरी बेटी को हॉस्टल में दाखिला चाहिए, पढ़ाई के साथ थोड़ा सुकून भी मिल जाए।”
दोस्त ने तुरंत मदद की और एक हफ्ते में रिद्धिमा का एडमिशन हो गया।
नीलम को समझ नहीं आया कि अचानक पापा ने यह फैसला क्यों लिया। लेकिन उन्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ा।
जब रिद्धिमा हॉस्टल गई, तो पहले कुछ दिन उसे डर लगा, लेकिन फिर उसे लगा जैसे किसी ने उसे आज़ादी दे दी हो। धीरे-धीरे उसकी मुस्कान वापस आई, पढ़ाई में उसका मन लगने लगा और दोस्त भी बन गए।
कुछ महीनों बाद, जब पापा मिलने आए तो रिद्धिमा दौड़कर उनसे लिपट गई – “पापा, अब मैं खुश हूँ… बहुत खुश!”
पापा की आँखें भर आईं। उन्होंने सोचा – “शायद मां का प्यार नहीं दे पाया, लेकिन एक सुरक्षित जीवन तो दे सका।”
सीख (Moral):
हर बच्चे को प्यार, सम्मान और सुरक्षा का हक़ है। कभी-कभी एक सही फैसला किसी मासूम की ज़िंदगी बदल सकता है।
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